नाइट लैम्प के लाल मन्द प्रकाश में रुबी के गुलाबी बदन, पतली कमर और सेब जैसे स्तन देखकर नशा दुगना हो गया। कुछ अंगों की मिलन की साध बाकी थी, दोनों ही बेकरार थे, अब और देर न कर रुबी ने पैर पीछे की तरफ सीधे किये और जंघा का जंघा से, नाभि का नाभि से, चूचक का चूचक से मिलन करा अपने रसीले होठ अधरों पर टिका दिये। दोनों ने एक दूसरे को बाजुओं से कसकर दबाया, सभी अंगों में इक दूजे को निगल लेने की होड़ लगी थी।
लिंग तो मानो स्तम्भित हो गया था, योनि बारम्बार अभिषेक कर रही थी। रुबी ने अधरों से कपोलों का स्पर्श कर उनकी भी क्षुधा मिटाई। अब होठ दुग्धपान को अधीर थे, स्तन भी कुचले जाने को आतुर थे, अब और न तरसाकर रुबी ने चूचक होठों से रगड़ा। वो तो कब से मौके की तलाश में थे, एक ही बार में आत्मसात कर गये। बारी-बारी से दोनों स्तनों का काटन, मर्दन, चूसन चालू था। रूबी दोनों हाथों को कभी बदन पर जोर से रगड़ती, कभी चिकोटी काटती। वह अब तेजी से योनि को लिंग पर रगड़ने लगी, कभी चारों दिशाओं में जोर लगाती, कभी गोल-गोल घुमाती। फिर हाथों से मुख को थाम तेजी से होठों को पीने लगी, और स्तनों से वक्षस्थल को दबा, सीत्कार की आवाज के साथ योनि से लिंग पर ऊपर- नीचे आघात करने लगी। अब लिंग का भी संयम टूटने लगा था, दोनों हाथों ने रुबी को कसकर दबाया, योनि ने तेजी से स्पंदन किया और लिंग ने उसे अमृतवर्षा से लबालब कर दिया।
दोनों इस मदहोश हाल में देर तक पड़े रहे। जब थोड़ा होश आया तो रुबी बोली `मैं फ्रेश होकर आती हूँ`, जब वह बाहर आयी तो अप्रत्याशित रूप से स्नान करके गीले बदन थी। मैं तो उसके इस रूप को अपलक देखता ही रह गया। मैं बोला, `तुम्हारे इस रूप का दीदार पूर्ण प्रकाश में करना चाहता हूँ`। उसकी मौन स्वीकृति मानो कह रही थी,`नेकी और पूछ-पूछ`! नीलू मुँह ढककर गहरी नींद में सो रही थी। मैंने धीरे से लाइट जलाई और रूबी को निहारा, जो पलंग पर आँख बंद कर लेटी थी। दूधिया प्रकाश में रुबी की कमनीय काया देखकर थोड़ी देर तो सुध-बुध ही खो बैठा। नेत्र इस दृश्य को हमेशा के लिए नैनों में बसा लेना चाहते थे। उसके गुलाबी, कोमल, मखमली बदन में बालों का नामो-निशाँ न था। मैं रुबी को ताबड़तोड़ नख से शिख तक चाटने, चूमने लगा। उसके एक-एक रोम को पी जाना चाहता था।
जंघा, स्तन और गालों को तो जितना चबाता, क्षुधा और बढ़ती जाती। कई राउंड चुम्मा-चाटी के चले, लेकिन मुख से योनि-रस पान करने की हसरत पूरी न हो सकी; दरअसल वह मुख मैथुन के विरुद्ध थी, और हम तो उसकी अदा व रजा के दीवाने थे ही। अब योनि लार टपका रही थी और लिंगराज भी मचल रहे थे; सो रुबी के दोनों पैर अपने कंधों पर रख, सुपाड़े को चिकने भगोष्ठ पर टिका, हाथों से चूचियाँ कसकर पकड़ जैसे ही जोर का झटका मारा, रुबी की हल्की चीख के साथ लिंग, योनि में समाता चला गया और सभी गहराइयों को पार कर गया। कुछ देर तक ऐसे ही बने रहे, चाहते थे समय यहीं ठहर जाए।
रुबी पैर फैलाते हुए बिस्तर पर सीधे हो गयी और मैं उसके ठीक ऊपर। होठों ने एक बार फिर से चूचियों से खेलना, उन्हें दबाना, काटना, मसलना और पीना शुरु कर दिया। इसके बाद चेहरे की बारी थी, होठों ने गर्दन, कान, कपोल, और पलकों पर चुम्बन की झड़ी लगा दी। गालों को मुख में लेने के बाद तो छोड़ा ही नहीं जाता था। अब अधरों में इक दूजे को पीने की होड़ थी, जिह्वा भी इक दूजे से मिलन कर रही थी। मैंने रुबी को बाहों में भरकर जोर से दबाया ताकि उसकी गंध मुझमें समा जाए और वह रोम-रोम में बस जाए। लिंग भी योनि से अठखेलियाँ कर रहा था, कभी ऊपर आकर उसे तरसाता, तो कभी त्रिशंकु की तरह अधर में अटका रहता, तो कभी छपाक से एकदम अंदर धँस जाता। रूबी कब पीछे रहने वाली थी, वह भी पैर क्रॉस कर लिंग को ऐसे जकड़ लेती कि बेचारा हिल-डुल भी न पाता। देर तक दोनों की उठा-पटक चलती रही।
लिंग अब योनि की दीवारों पर अगल-बगल धक्का लगाते हुए मथानी की भाँति उसे मथने लगा। मथने में कटिप्रदेश की आपसी रगड़ का अहसास बड़ा सुखद था। अब लिंग ने सीधी छळांग शुरू की, तेजी से नीचे जाता और छपाक की आवाज के साथ तल का स्पर्श कर ऊपर आ जाता। धीरे-धीरे गति बढ़ने लगी; रुबी भी आह, ओह, उई, अरे–, मार डाला की आवाजों से उत्साहवर्धन कर रही थी। अब दोनों चरम पर थे, दोनों ने एक दूसरे को कसकर भींचा और इक दूजे को प्रेम रस से सराबोर कर दिया। इसी मदहोशी में न जाने कब आँख लग गयी।
रात में एक बार अचानक आँख खुली, देखा- लाइट जल रही थी, नीलू गहरी नींद में थी और रुबी निर्वस्त्र टाँग फैलाए बेसुध सो रही थी। उसके अंग-प्रत्यंग से मादक यौवन छलका जा रहा था। उसे देख मन फिर बेकाबू हो उठा। शेर के मुँह में खून लग चुका था, वह अब कहाँ रूक सकता था? वह उठा और प्रचण्ड वेग से योनि पर झपट पड़ा। अचानक सीधे आक्रमण से वह थोड़ा अकुलाई, मचलाई और छ्टपटाई किन्तु जैसे ही वह पूरा समाया वह शांत हो गयी। एक बार फिर चुम्बन, चूँटी, चूसन, काटन, कुचलन, मर्दन, और घर्षण का दौर चला; ज्वार आया, और दोनों उसमें एक जान होकर न जाने कब तक बहते रहे।